34. कभी कभी ऐसा नहीं लगता कि सबकुछ होते हुए भी आपको कुछ और चाहिए। ये मिल जाए तो वो चाहिए।
यदि आपको ऐसा असंतोष अनुभव होता है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि सन्तुष्ट हो जाना मनुष्य का स्वभाव ही नहीं है। और इसी कारण मानव ने सभी जीवों में सबसे अधिक विकास किया है।
इसीलिए मनुष्य ने आर्थिक और शक्ति रूप से वृद्धि की।
सम्पन्नता बढ़ती गई, ज्ञान बढ़ता गया। अर्थात् विकास के लिए असंतोष आवश्यक है।
परन्तु समस्या तब उत्पन होती है जब ये असंतोष ईर्ष्या में बदल जाता है।
जब आप स्वयं की संपति अर्जित करने कि अपेक्षा ये प्रयास करने लगते हैं कि आपके प्रतिद्वंदी की संपति अधिक ना रहे।
तब ये असंतोष ईर्ष्या में बदल जाता है। और यही ईर्ष्या जन्म देती है अपराध को, षडयंत्र को।
तो प्रश्न ये उठता है कि इस ईर्ष्या से बचा कैसे जाए?
और इसका केवल एक ही उपाय है
जब प्रयास अपने साथ साथ दूसरों के विकास का भी हो, तब जाकर ईर्ष्या समाप्त होती है।
और प्रारंभ होता है आनंद का, वास्तविक विकास का।