मानवता के लिए पुरुषार्थ और सन्तोष अति आवश्यक है।


||जयगुरुदेव||

     पुरुषार्थ के द्वारा मंजिल प्राप्त करना अति सुगम है परंतु पुरुषार्थ अंतर्मन से होना चाहिए जिसने दीर्घकालीन पुरुषार्थ के साथ अभ्यास किया तो उन्हें न केवल उपलब्धि हासिल हुई अपितु इतिहास के सुनहरे पन्नों में वे अमर हो गए जिस प्रकार अर्जुन ने दीर्घकाल तक तपस्या करके अद्भुत शक्तियां प्राप्त की थी यदि पुरुषार्थ लंबे समय तक निरंतर किया जाए और सच्चे मन से किया जाए तो सिद्धि अवश्य मिलती है|
     महावीर और बुद्ध ने तो  बारह वर्ष तक साधना की थी तब उन्हें बोधि प्राप्त हुआ था| शिकागो धर्म संसद में विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति को जिस ओजस्वी स्वर में रखा वहां उपस्थित सभी उनकी प्रतिभा के कायल हो गए गरीब परिवार में जन्म लेने वाला बालक एक दिन ईसा मसीह के रूप में प्रसिद्ध होगा तथा इसाई धर्म का प्रवर्तन करेगा तब कौन यह जानता था स्पष्ट है कि पुरुषार्थ ऐसी ही साधना है जिससे अदना सा व्यक्ति हिमगिरि के उत्तुंगता का संस्पर्श कर सकता है 
     पुरुषार्थ प्रदर्शन नहीं है पुरुषार्थ उस बच्चे जैसा नहीं होना चाहिए जो अपने पिता को देखकर बैग लेकर पढ़ने बैठ जाता है घंटो बैठता है किंतु एक शब्द भी नहीं पढ़ पाता ऐसा करके व्यक्ति अपने को धोखा देता है यह तो मात्र दिखावा है कार्य के प्रति, रूचि, आस्था, श्रद्धा व्यक्ति को महान बनाती है आम कहावत है जो भी काम करो मन लगाकर करो पुरुषार्थ के साथ ही संतोष का जीवन में अति महत्व है यदि व्यक्ति के जीवन में संतोष ने होगा तो वह अहंकारवश अपने को महान मानते हुए सभी को कष्ट देगा 
     हर व्यक्ति में अनंत शक्ति है और वह हर काम कर सकता है बशर्ते अहम् से दूर हो-रावण के लिए कहां जाता है एक लख पूत सवा लख नाती तेहि रावण के दिया न बाती| 
     संतोष का शाब्दिक अर्थ है पुष्टि, मन का तृप्त हो जाना| जो भी परिस्थितियां सामने हैं उन्हें ईश्वर का अनुग्रह माने और प्रसन्न रहें 
जब साधक के मन में भाव आता है कि उसके पास औरों की तुलना में साधनों की बेहद कमी है वैभव कम है संपदा कम है यश नहीं मिल रहा है और पद प्रतिष्ठा नहीं है तो वह दुखी होता है 
     अभाव क्यों नजर आता है जब दूसरों से तुलना करते हैं तभी अभाव नजर आता है मनुष्य के अलावा और कोई प्राणी अभाव का रोना नहीं रोता क्योंकि उसके पास तुलना करने वाली सोच नहीं है यदि तुलना की आदत पर अंकुश लगाया जा सके तो संतोष की सिद्धि को प्राप्त करना अति सरल होगा जो पुरुषार्थ के द्वारा संतोष से उत्पन्न अमृत को पीकर भोग तृष्णा छोड़ते हैं वह प्राचीन शास्त्रों में मुनि तुल्य कहे गए हैं प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है कि उसे अपनी मंजिल मिले| पुरुषार्थ के द्वारा असंभव को संभव किया जा सकता है और संतोष के द्वारा जीवन में सहजता और सरलता आती है संतोष गुण से व्यक्ति की आकांशा इच्छा तृष्णा जैसे अशुभ भाव संतोष गुणरूपी अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं 
    संसार की सारी शक्तियां हम में ही हैं हम हैं जो आंखें मूंदकर शोर मचा रहे हैं| हमारे भीतर असीम शक्तियां सोई हुई है बस उन्हें जागृत करने की आवश्यकता है अहंकार रहित पुरुषार्थ और संतोष के द्वारा ही जीवन को सहज और सुगम बनाया जा सकता है।


एम. गढवाल ©mgadhwal.blogspot.com

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